अक्सर भोपाल को विस्थापितों और सेवा निवृत बाबुओं का शहर मान लिया जाता है . सच भी है आज भी मध्य प्रदेश में यदि कोई अपना पुश्तैनी घर छोड़ कर कहीं बसना चाहता है तो वह हैं भोपाल - भोपाल भले ही राजधानी हो लेकिन है एक शहरी गाँव- एक भोपाल में बहुत से भोपाल – पुराने भोपाली . रिटायर्ड भोपाली , बुंदेलखंड से आये या मालवा-निमाड़ से आये निम्न माध्यम वर्ग के श्रमिक – पत्रकार- लेखक , चुक गए नेता --- बड़ी जमात है . ऐसा हो नहीं सकता कि न्यू मार्केट जाओ और कोई न कोई परिचित न मिला जाए और अपने “देस” की बोली-भाषा में बात न करे .
“भोपाल टाकीज” अकेले शहर की किस्सागोई नहीं है , बल्कि इतिहास से गुजरते हुए एक शहर के विकास की गाथा भी है . महानगर बनाने की छटपटाहट में उभरी कुंठा, विद्रूपता और बहुत कुछ नोस्टेल्जिया भी है . यदि आप भोपाल को जानते हैं तो इसे पढने में अलग मजा होगा – जैसे कि अपने अनुभव में कुछ नया जुड़ जाना या किसी जगह को देखने का अलग नजरिया . लेकिन यदि कभी आप भोपाल आये नहीं तो यह किताब का हर पन्ना एक कौतूहल है कि आगे क्या होगा ? और जब आखिरी पन्ना पढेंगे , जिसमें शहर के लेखन परम्परा और वर्तमान का उल्लेख है : मन होगा कि टिकट कता कर बड़े तालाब को देख ही लिया जाए .
लेखक संजीव भी पिपरिया (होशंगाबाद) से भोपाल अजब आये थे तो हबीबगंज स्टेशन पर अब वह रानी कमलापति बन गया . वे बताते हैं कि आखिर क्यों पुराने भोपाल के लोगों को “बर्रू कट” कहा जाता है . वे यह भी बताते हैं कि रानी कमलापती का इतिहास क्या है . वे भोपाल में खुली जीप के चस्के और वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी आर सी नरोन्हा के नाम पर बनी अफसरों के प्रशिक्षण के संस्थान के बहाने – एक खेत के चौकीदार द्वारा अफसरों को सुअर बता देने का मजेदार किस्सा भी कह देते हैं . भोपाल के तांगे, गोबर के बतोले , यहाँ की गालियाँ और शोले सिनेमा में सुरमा भोपाली के बोलने की विशिष्ट भोपाली शैली की किस्सागोई भी इसमें हैं .
किताब पढ़ी जाना चाहिए और शायद देश के हर शहर पर इतनी हलकी फुलकी किताब होना भी चाहिए , जो किसी दंभ , स्वयम्भू दावों से अलग, मजे -मजे में एक शहर का व्यापक चित्र खींच दे.
भोपाल टाकीज , संजीव परसाई , लोक प्रकाशन, भोपाल , पृष्ठ 194 रु. 300.00